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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((987))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५०४(504)*
*ईर्ष्या एवं अभिमान*
*संत ज्ञानेश्वर*
संत दयालु हुए हैं, कृपालु हुए हैं, जो अभिमान पर चोट मारे । वह सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता । वह आपका परम हितकारी होगा । तभी वह आपके अभिमान पर चोट मारकर तो आपके अंदर का अभिमान बाहर निकालने की चेष्टा करेगा । संत ज्ञानेश्वर आज ऐसे ही दयालु हुए हुए हैं । अतएव सिद्ध चांगदेव के मुख से निकलवाया मुझे क्षमा कीजिएगा । मुझे आत्मबोध दीजिएगा, मुझे आत्मज्ञान दीजिएगा, मुझे अपना शिष्य स्वीकार कीजिएगा ।
एक चौदह सौ वर्ष का शिष्य, सोलह वर्ष के भक्त से शिष्यत्व की भीख मांग रहा है । मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लीजिएगा । बहुत से शिष्य उनके साथ आए हुए थे । उनके शिष्य अतएव भक्त ज्ञानेश्वर ने, संत ज्ञानेश्वर ने शर्त रखी -चांगदेव जी मैं आपको शिष्य तब स्वीकार करूंगा, यदि आपके इन शिष्यों में से कोई अपनी बलि देने को तैयार हो
तब ।
शिष्यों ने यह बात सुनी अतएव एक-एक करके खिसकने लग गए । सभी के सभी शिष्य खिसक गए । मानो यह अभिमान की मेरे इतने शिष्य हैं, वह भी खत्म हुआ ।
इधर उधर देखा, इधर उधर झांका । मेरे लिए कोई भी शिष्य बलि देने को तैयार नहीं हुआ, तो काहे के शिष्य हैं यह । यह क्या शिष्य है, कौन इन्हें शिष्य कहेगा ? अतएव यह अभिमान भी चांगदेव का दूर हुआ । कहते हैं चांगदेव ने हाथ जोड़कर, कसकर पांव पकड़ कर कहा -ज्ञानेश्वर जी मैं ही अपनी बलि देने को तैयार हूं । पर मुझे अपना शिष्य स्वीकार कीजिएगा । कहा मुझे तन के सिर की बलि नहीं चाहिए । संत ज्ञानेश्वर कहते हैं देवियो सज्जनो मुझे तन से जुड़ा हुआ यह जो सिर है, इसकी बली नहीं चाहिए । सामान्यता तो हम यही समझते हैं ना बलि का अर्थ यह है इस मुंड को दे देना, चढ़ा देना बलि है, नरबलि है, या पशु बलि है । एक ही अर्थ है सिर को काट कर उसके आगे चढ़ा दिया जाता है, इसको बलि कहा जाता है ।
संत ज्ञानेश्वर स्पष्ट करते हैं कहते हैं-चांगदेव मुझे तन वाला मुंड बलि नहीं चाहिए । मुझे तेरा सिर नहीं चाहिए । मुझे तेरा अहम् चाहिए । मुझे अहम् की बलि चाहिए । अपने अहम की बलि दे । जो यह सोचता था कि मेरे इतने शिष्य हैं, जो यह सोचता है कि मेरे इतने आश्रम हैं, जो यह सोचता है कि मैं गुरु हूं, मेरे इतने शिष्य हैं, मैं इतना बड़ा हूं, मेरे इतने बड़े आश्रम है, मैं इतनी सिद्धियों का मालिक हूं, यह मैं मैं करने वाला जो सिर है ना, मुझे उसकी जरूरत है, जिसे अहम् कहा जाता है । तब मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा, तब मैं तुम्हें नामदान दूंगा, तब मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊंगा ।
परमेश्वर साधक जनों लाज रखता है । परमेश्वर बहुत कृपा करता है । जिसके प्रति ईर्ष्यालु हैं लोग, उस बेचारे को पता भी नहीं होता कि उसके प्रति ईर्ष्यालु हैं, लेकिन ईर्ष्या की अग्नि से ना जाने कितने लोग जल रहे होते हैं, उस बेचारे को कोई पता नहीं ।
ऐसी स्थिति देवियो सज्जनो एक बार कबीर साहब के साथ आ गई ।
कबीर साहिब की ख्याति को देख कर अनेक संत महात्मा, सामान्य व्यक्ति बहुत ईर्ष्यालु हो गए उनके प्रति । अतएव उन्हें पता नहीं, उन्हें नीचा दिखाने के लिए,
देखो नीचा दिखाने वाला किस प्रकार से डंक मारता है, आप सोच नहीं सकते । किस प्रकार से नीचा दिखाना है,
उन्हें, कबीर साहिब को आज चिट्ठियां भेज दी । संतो महात्माओं को सैकड़ों के हिसाब से चिट्ठियां चली गई । परसो कबीर साहिब बहुत बड़ा भंडारा कर रहे हैं । मेहरबानी करके सब के सब पधारिएगा । बेचारे कबीर को कुछ पता ही नहीं यह चिट्ठियां लिखी गई हैं, उसे नीचा दिखाने का ढंग । लेकिन परमात्मा तो जानता है । परमात्मा तो लाज रखता है ना । परमात्मा तो कृपा करता है, दया करता है।
मानो वह अपने भक्त की किसी प्रकार से भी लाज पर आंच नहीं आने देता । अतएव भंडारे का दिन, सैंकड़ों की संख्या में उनके आश्रम के आगे तांता लग गया है । कबीर साहब ने देखा -यह क्या बात है । अतएव भूसी वाले कमरे में छुप कर बैठ गए । मैं क्या कर सकता हूं इस वक्त ? मेरे घर अपने लिए रोटी नहीं है । मेरे घर लोई के लिए रोटी नहीं है । मैं इतने सारे संतो महात्माओं को कहां से रोटी खिलाऊंगा । अतएव भूसी वाले कमरे में छुप कर बैठ गए । कहते हैं देवियो सज्जनो यह सच्ची गाथाएं हैं concocted stories नहीं है । यह सच्ची घटनाएं है ।
कहते हैं क्या देखते हैं, भगवान का सिंहासन हिला । चल लक्ष्मी लोई बन । मैं कबीर बनता हूं । दोनों अपने भक्त की जाकर लाज रखते हैं । अनेक देवी देवता और साथ लिए, जो सेवा कर सकते हैं । एक बैलगाड़ी के ऊपर आगे कबीर साहब बैठे हुए हैं, साथ लोई बैठी हुई है । ढेर सारा सामान । आकर भजन कीर्तन हुआ । भजन कीर्तन के बाद भंडारा हुआ । ऐसा भंडारा कभी जिंदगी में उन संतो महात्माओं ने कभी नहीं देखा था । ऐसा भोजन, ऐसा स्वादु भोजन कभी जिंदगी में पहले नहीं खाया हुआ था ।
तो परमात्मा ने उनकी लाज रखी । जब सब कुछ समाप्त हो गया तो कबीर साहब बाहर निकले भूसी वाले कमरे में से । इतना ही कहा
“ना कुछ किया, ना कर सका,
ना कुछ किया शरीर,
जो कुछ किया सो हरी किया
कहत कबीर कबीर”
तो यही साधक जनो समाप्त करने की इजाजत दीजिएगा धन्यवाद ।
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