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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1033))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग 550(५५०)*
*नाना उक्तिया भाग-१ं*
*कटु वाणी पर चर्चा*
संतो महात्माओं की बातें तो बहुत इस प्रकार की होती है ना ।
किसी एक संत को बड़े अपमान भरे शब्द सुनने ही पड़ते हैं । यह कोई संतो के लिए, साधुओं के लिए नई बात नहीं है । बहुत सुनने पड़ते हैं, औरों से कहीं ज्यादा ।
किसी ने अपमान भरे शब्द कहे ।
गाली दी जैसे, तो शिष्यों ने बुरा माना ।
गुरु महाराज के लिए, संत के लिए ऐसे शब्द शोभनीय नहीं है । प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाही शिष्यों ने । तो संत ने रोका । उन्हें समझाया कहा -
बच्चों इस व्यक्ति ने यदि मेरी देह की निंदा की है, तो देह सबकी निंदनीय ही है । कोई नई बात नहीं । हम स्वयं को भी देह की निंदा करनी चाहिए क्यों ?
यह कुकर्म सारे इसी के माध्यम से होते हैं। देहभाव बड़ा खराब भाव है । अविद्या कहा जाता है इसे । तो बच्चों देह तो निंदनीय है ही। और अगर इस व्यक्ति ने मेरी आत्मा की निंदा की है, तो इसकी आत्मा में और मेरी आत्मा में कोई अंतर नहीं है । वह एक ही है। तो बुरा क्यों मान रहे हो ? संत ने समझाया
महर्षि विशिष्ट को साधक जनों उनके शिष्यों ने आज कहा -
तप से महाराज इतनी सिद्धियों के मालिक हो, इतनी शक्तियों के मालिक हो । तप से क्या प्राप्त नहीं है आपको । आप अपने आलोचकों को श्राप क्यों नहीं दे देते ?
इतने निंदा भरे शब्द, अपमानजनक शब्द, आपके लिए प्रयोग करते हैं । उन्हें श्राप दे दे। आप में समर्थ है कि श्राप देते हैं, उनका सत्यानाश हो जाएगा । सर्वनाश हो जाएगा उनका ।
महर्षि वशिष्ठ समझाते हैं नहीं बंधुओं ।
तप, त्याग एवं भक्ति इसीलिए नहीं की जाती कि शत्रुओं का सत्यानाश किया जाए, या निंदको का, आलोचकों का सत्यानाश किया जाए । तप, त्याग, भक्ति इसलिए नहीं की जाती,
उपासना, साधना इसलिए नहीं की जाती ।
वह तो इसलिए की जाती है कि अज्ञानियों के हृदय के अंदर ज्ञान का दीपक जला दिया जाए । अज्ञानियों के हृदय के अंदर ज्ञान का दीपक जला दिया जाए और सामान्य व्यक्तियों के अंदर भक्ति का संचार कर दिया जाए । उनके अंदर भक्ति जागृत कर दी
जाए ।
मैं इन पर क्रुद्ध होकर अपनी की हुई कमाई का सत्यानाश क्यों करूं ? यह कमाई बहुत अनमोल है । साधना की कमाई, उपासना की कमाई, भक्ति की कमाई, यह तप, त्याग की कमाई बहुत अनमोल है । मैं इन्हें श्राप देकर तो,
अपनी बुद्धि के अनुसार संसार है ना देवियों सज्जनों । बड़ा मुश्किल है कहना कि मुख के अंदर कितनी जिव्हा है संसार के ।
हम तो साधक हैं ना । सो एक पर्याप्त है हमें अपने मुख के अंदर । अनेक जिव्हाएं नहीं रखनी ।
भगवान राम से किसी ने प्रश्न कर दिया महाराज -
दो नासिकाएं दी,
दो आंखें, दो कान,
यह जिव्हा एक क्यों दी है ?
हंसकर मुस्कुरा कर कहा, शुक्र है एक ही दी है । अनेक दी हुई होती तो ना जाने इस जिव्हा ने क्या कर दिया होता । एक ही पर्याप्त है ।
जिनको गंदी आदतें हैं देवियों सज्जनों, दूसरों के घरों में आग लगाने की, इस जिव्हा ने ना जाने कितने घरों को जला कर तो राख कर दिया । आप विश्वास नहीं कर सकोगे, लेकिन यह सत्य है । जिनकी यह आदत है।
आगे बढ़ते हैं । कटु शब्द एक साधक के लिए साधक जनो जहर समझिएगा । अपने लिए भी, और औरों को भी वह एक जहर का ही टीका लगाता है । जिनकी वाणी में कटुता है, कड़वाहट है, आप जितना मर्जी रोको, निकलता तो वही है जो भीतर है । कितना कुछ छुपाओगे । अंतत: वहीं निकलता है, जो आपके भीतर है ।
कड़वे बोलने वालों को, विषैले बोलने वालों को, यह समझ लेना चाहिए की अंदर विष भरा पड़ा है, अंदर कटुता भरी पड़ी है, आज स्वामी जी महाराज ने जो शब्द लिखे हैं सदा स्मरणीय कभी ना भूलिएगा
“घाव तीर तलवार के पूर आते हैं तत्काल” स्वामी जी महाराज के शब्द देखो कितने अनुभवी शब्द है ।
तीर के, तलवार के घाव पूर् आते हैं तत्काल। थोड़ी देर के बाद भर जाते हैं। लेकिन वाणी का तीर, वाणी का जो तीर है, ऐसा घाव देकर जाता है, पीड़ा दे सब काल। स्वामी जी ने कहा घाव तो दिखाई नहीं देता, पीड़ा भी दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका अनुभव कभी नहीं जाता । इस कटुता से साधक जनो बचना चाहिए ।
आज चर्चा शुरू करते हैं, कल जारी रखेंगे इसी चर्चा को ।
बड़ा गहरा रोग है अपने अंदर, और बड़ी गहरी मार करता है दूसरे के अंदर ।
जानी पहचानी महिला की बात करते हैं द्रौपदी की ।
महाभारत के युद्ध का एक प्रमुख कारण । राजसूय यज्ञ, ऐसा मंडप बनाया पांडवों ने, जहां थल है, वहां जल दिखे ।
ऐसा शानदार सब कुछ बनाया ।
मानो व्यक्ति चल रहा है, तो उसे लगता है, कि कोई जल है । लेकिन जल है नहीं ।
समतल मानो धरती है ।आगे चलकर देखता है तो उसे दिखाई देता है कि यह भूमि है, लेकिन है जल ।
दुर्योधन आ गए हैं । आमंत्रित थे । आ गए हैं। आपको इन सब बातों का पता है । सिर्फ याद दिला रहा हूं आपको । चलते चलते आगे बढ़ते जा रहे हैं । जहां जल नहीं था, धरती ही थी, अपने कपड़े थोड़े से ऊपर उठा लिए । उन्हें जल दिखाई दिया ।
आगे जाकर ऐसा ही विपरीत दिखाई दिया । जहां जल था, वहां कपड़े उठाए नहीं । तो भीग गए ।
द्रोपदी ने इस दृश्य को देखकर इतना ही कहा ना
“आखिर है तो अंधे की औलाद ही ना” बससससस अब आप sorry कहो,
अब आप अपने शब्द वापस लो,
अब आप क्षमा मांगो,
जो घाव आपने कर दिया, सामान्य व्यक्ति, तो खासकर दुर्योधन जैसा व्यक्ति तो,
उसे कभी भूल नहीं पाएगा । और उसने कभी भूला नहीं । वहीं पर मन में ठान ली महाभारत का युद्ध हो कर रहेगा ।
एक मामूली सी बात थी ना ।
साधक को तो ऐसा नहीं होना चाहिए ।
लेकिन दुर्योधन साधक नहीं है ।
दुर्योधन साधक होता तो यह नौबत शायद नहीं आती ।
क्या हो गया गलत तो नहीं कहा उसने । द्रोपदी ने, भीम ने, गलत नहीं कहा ।
बाप है अंधा । लेकिन यह सब बातें कहने की तो नहीं होती ।
पर कहनी भी चाहिए तो बड़े ढंग से कहनी होती है । बेढंगी नहीं कहनी चाहिए । साधक जनों समय हो गया है ।
कल इस चर्चा को और आगे जारी रखेंगे ।
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