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Bhagwan katha Bhag 4 karam Yog
*श्री कृष्णा जन्माष्टमी के शुभ महोत्सव पर*
परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1088))
*(श्री गीता ज्ञान यज्ञ भाग 4)*
*श्री गीता जी*
*कर्मयोग भाग-४*
कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय की चर्चा गीताचार्य भगवान् श्री कृष्ण समाप्त करते
हैं । हमारी चर्चा तो चल रही है, कर्मयोग पर। पार्थ ! कोई भी व्यक्ति इस संसार में कर्म किए बिना रह नहीं सकता । कर्म बंधन का कारण भी है और मोक्ष का साधन भी है । भगवान् श्री कर्म को कर्मयोग बनाने की विधि समझा रहे हैं । इस कर्म को किस ढंग से किया जाए कि यह योग बन जाए। इसे कर्मयोग कहा जाता है । इसलिए तीसरे अध्याय का शीर्षक भी है कर्मयोग ।
उस दिन आपसे चर्चा की जा रही थी, क्रिया के कुछ दोष हैं जिनका निवारण कर दिया जाए तो क्रिया कर्म, दोषी नहीं रहते, बंधन का कारण नहीं रहते ।
सर्वप्रथम प्रथम दोष है कर्म के प्रति आसक्ति, कर्म फल के प्रति आसक्ति,
कर्तापन का अभिमान, तीन,
चौथी बात कर्म ना करने में भी तेरी रुचि ना हो, यह चौथी बात । भले ही हम इसको बहुत महत्व नहीं देते लेकिन चौथी बात भी है, तब कर्मयोग बनता है । बहरहाल चौथी बात को हम ना लेते हुए पहली तीन बातों की ही चर्चा करेंगे । पुन: सुनिए कर्म करने में आसक्ति का त्याग, कर्म फल का त्याग, फलासक्ति का त्याग और कर्तापन के अभिमान का त्याग । इन तीनों चीज़ों के त्याग से कर्म कर्मयोग बन जाता है, कर्म पूजा बन जाता है, भगवान् को समर्पित करने योग्य पुष्प बन जाता है, पूजा की सामग्री बन जाता है वही कर्म जो बंधन का कारण समझा जाता था ।
आसक्ति का त्याग, बिना आसक्ति के जो कर्म किए जाते हैं, जीवन जिया जाता है, उसे अनासक्त जीवन कहा जाता है । वास्तव में देखा जाए तो गीता जी का अभिप्राय ही यही है, अनासक्त रहकर अपने कर्तव्य कर्म का पालन कीजिएगा । एक ही उपदेश ।
एक ही पंक्ति में यदि गीता जी का उपदेश कहना हो तो यही है ना, अनासक्त रहकर अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन कीजिएगा । जहां आसक्ति नहीं है, साधक जनो ! वहां कर्म अपने आप ही कर्त्तव्य बन जाता है । वहां अपने आप ही कर्म पूजा बन जाता है । आसक्ति अर्थात् राग । अभी कितनी भारी निंदा करी है भगवान् श्रीकृष्ण ने राग और द्वेष की ।
एक न्यायाधीश है, उदाहरण देखिये एक न्यायाधीश है । यदि उसका किसी के साथ राग है, मानो लगाव है तो न्याय में पक्षपात होगा । यदि द्वेष है तो न्याय नहीं अन्याय होगा । तो राग द्वेष इतने गंभीर दोष हैं। एक संसारी कहिए, कर्म योगी कहिए, एक कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति कहिएगा, एक साधक कहिएगा, उसके जीवन में यह दो मुख्य दोष नहीं होने चाहिएं । राग द्वेष, इन को दूर
रखें । इन से दूर रहें । राग द्वेष, हैं तो देवियो सज्जनो ! परमात्मा के दिए हुए दो
अस्त्र शस्त्र । अस्त्र शस्त्र कभी अपने लिए नहीं हुआ करते, औरों के लिए हुआ करते
हैं । अपने बचाव के लिए और औरों को मारने के लिए । इन्हीं को अस्त्र-शस्त्र कहा जाता है ना । अस्त्र-शस्त्र आदमी अपने पास किस लिए रखता है ?
इसलिए कि अपनी रक्षा कर सके और दूसरों का यदि हनन करना पड़े तो उनको हनन कर सके । हमारी मूर्खता कहिएगा, मूढ़ता कहिएगा, इतनी ही है कि हमने उन दो अस्त्रों-शस्त्रों को अपने लिए प्रयोग ना करके दूसरों के लिये प्रयोग करना शुरू कर दिया
है तो फिर चोटें लगेंगी । यदि अस्त्र-शस्त्र, तलवार, आप दूसरों के लिए प्रयोग करने की बजाय अपने लिए करोगे, तो कटोगे । हाथ कटेगा, बाजू कटेगा, गर्दन कटेगी इत्यादि इत्यादि ।
राग द्वेष इसी प्रकार के हैं । इन्हें प्रयोग किस के लिए करना है । राग अर्थात् परमात्मा से अनुराग । यह राग किस लिए दिया हुआ है परमात्मा ने । परमात्मा की दी हुई चीज़ है, ग़लत नहीं हो सकती । ग़लती हमारी है कि हम उसका सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग कर रहे हैं । राग द्वेष की ग़लती नहीं है । राग अर्थात् परमात्मा से अनुराग कीजिएगा । राग आपको किस लिए दिया है कि आप अपनी प्रीति, अपना राग, आप हर वक्त परमात्मा का राग अलापो, संसार का नहीं, पत्नी का नहीं, पुत्र का नहीं, पुत्री का नहीं, धन का नहीं, परमात्मा का राग अलापो । इसलिए आपको राग नामक गुण दिया हुआ है । द्वेष, जो चीजें, कुसंग के प्रति द्वेष, विश्व के प्रति द्वेष, इन के प्रति द्वेष हो जाए तो जीवन सफल हो गया । तो यह राग और द्वेष का सदुपयोग है । हम सदुपयोग ना करें उनका दुरुपयोग करें तो फिर उनका भुगतान हमें भुगतना ही पड़ेगा । मोह ममता में घिर जाओगे, कोई निकालने वाला नहीं होगा । मोह ममता में घिर गए तो फिर आप कर्मयोगी तो नहीं हो सकोगे, आप अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर सकोगे ।
आसक्ति रहित कर्म, गीता जी, क्या उपदेश दे रही हैं । आसक्ति रहित कर्म कीजिएगा ।
कैसे ? जैसे आपके घर में एक नौकर है, नौकरानी है । आपने अपने बच्चे-बच्ची के लिए आया रखी । हर वक्त बच्ची बच्चा उसी के पास रहता है । बड़ा प्रेम, यह आपको लगता है । उसे नहीं लगता । आपका बच्चा आया ने अपनी गोद में रखा हुआ है । उसे नहलाती है, खिलाती है, पिलाती है, feed देती है, सब कुछ करती है । सुंदर बनाती है उसे, चमकाती है उसे । लेकिन टिकी कहां हुई है ? हर action जो इस बच्चे के साथ किया जा रहा है, उसे अपना बच्चा याद आ रहा है, यहां उसे यह सब कुछ करके सुख नहीं मिल रहा । यहां तो उसे तनख्वाह लेनी है, बस इतना ही काम है । इसको कर्तव्य कहा जाता है ।
अनासक्त होकर कर्म वह कर रही है । उसकी दृष्टि कहां टिकी हुई है, अपने परिवार पर, अपने बच्चों पर दृष्टि टिकी हुई है ।
एक cook है । घर में खाना बना रहा है । आपके घर में बहुत स्वादु खाना बनाता है। तरह तरह का खाना बनाता है । आज बड़ी पार्टी है इसलिए बहुत कुछ बनाया है । मन में क्या आया ? आज के दिन खाना बनेगा, हो सकता है अधिक बचे भी ।
वह सारे का सारा खाना मेरे परिवार के लिए जाएगा । दृष्टि कहां है उसकी ? यहां खाना बनाने में उसे सुख नहीं, यहां खाना बनाकर ढ़ेर सारे लोगों को खिलाने में उसे सुख नहीं । सुख कहां है ? सुख कहीं दूसरी जगह पर टिका हुआ है ।
इस संसार में रहते हुए देवियो सज्जनो ! अपने कर्मों को करते हुए यदि आपकी दृष्टि, यदि आप भीतर से परमात्मा से जुड़े रहते हैं तो वह कर्म पूजा बन जाएगा । वह आपका कर्म परमात्मा के लिए हो जाएगा वह कर्म कर्मयोग हो जाएगा ।
Bank में चलिए एक cashier अपने हाथों से लाखों रुपयों की transaction करता
है । दे रहा है, कोई जमा करवाने वाला भी होगा । पर अधिक पैसे लेने वाले आते हैं । लाखों की संख्या में पैसे दे रहा है । उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता । अपना क्या जा रहा है ? यही सोच है ना ।
Cashier की क्या सोच है ? यही है ना लाखों रुपए खुले हाथों से देता है । जितने मर्ज़ी निकलवा लीजिएगा आप दस लाख निकलवाना चाहें, वह देता है दस लाख आपको । उसे कोई पीड़ा नहीं महसूस होती क्यों ? उस पैसे के साथ उसकी आसक्ति नहीं है । बाहर जाता है । बाहर जाकर अपनी जेब में से कहीं सौ रूपये का एक नोट कम दिखाई देता है, तो खोज शुरू कर देता है । मैं कहां भूल आया ? मेरा एक सौ रुपया कम है । कहां गिर गया ? चिंता शुरू हो जाती है । एक आसक्ति रहित कर्म है । दूसरा आसक्ति युक्त कर्म है ।
लाखों रुपयों में काम करने वाला, खेलने वाला एक cashier उसको बोलो इसमें से सौ रूपया अपनी जेब में डाल ले, police station भेज दिया जाएगा, नहीं डाल सकता, अपना नहीं है ।
Bank में जिस प्रकार से cashier रहता है,
वही व्यक्ति घर में आकर मैं और मेरा मेरा मेरा मेरा करना शुरू कर देता है, यदि वहां भी bank की तरह ही जीवन व्यतीत करता है तो कर्मयोगी है । अनासक्त कर्म, अनासक्त होकर रहिएगा । अनासक्त व्यक्ति को, कर्मयोगी को, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह श्रीरामशरणम् में बैठा हुआ है, दुकान पर बैठा हुआ है, घर में बैठा हुआ है । हमारा व्यवहार इसीलिए अलग है कि हम यहां अलग हैं, घर में जाकर अलग हैं, दुकान में जाकर अलग हैं, दफ्तर में जाकर अलग हैं इसीलिए हम उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते जहां पहुंचना चाहिए ।
कर्मयोगी बहुत पक्का होता है । याद रखो मेरी माताओ सज्जनो ! यदि व्यक्ति अपने घर को छोड़कर बाहर कर्मयोग की चर्चा करता है तो पाखंडी है । कर्मयोग घर से शुरू होता है । यदि आप अपने घर में कर्मयोगी नहीं हैं तो आप बाहर भी कर्मयोगी नहीं हो सकते । पाखंडी हैं आप, दंभी हैं आप, कपटी हैं
आप । कर्मयोग घर से शुरू होता है । यह सेवा का काम, यह कर्त्तव्य कर्म निभाने का काम, घर से शुरू होता है ।
कर्तापन का अभिमान :- आसक्ति रहित कर्म, कर्तापन का अभिमान, भगवान् श्री इस कर्तापन के अभिमान को तोड़ने के लिए विराट स्वरूप धारण करते हैं । वह कर सकते हैं । सामान्य संत, भक्त, गुरु, शिक्षा के माध्यम से, ज्ञान के माध्यम से, प्रवचनों के माध्यम से वही काम करते हैं जो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के लिए कुरुक्षेत्र में किया था । हर कोई वैसा नहीं कर सकता जैसा उन्होंने किया है । वह तो बड़े विलक्षण जगद्गुरु । वह कर सकते थे । हर एक में ऐसा समर्थ नहीं है । पर वही चीज़ ज्ञान रूप में, वही चीज़ प्रवचन रूप में कहे, यह संत का कर्त्तव्य है, गुरु का यह कर्त्तव्य है, भक्त का कर्त्तव्य है और वह निभाता है । क्या दिखाते हैं भगवान श्री ? अर्जुन को दिखाते हैं यह सारे जितने राजा तेरे सामने खड़े पड़े हैं यह सब के सब मेरे अंदर मरे पड़े हैं । कोई दांतों में मरा पड़ा है, कोई इधर मरा पड़ा है, कोई उधर मरा पड़ा है । अर्जुन उनको देखकर तो भयभीत। अर्जुन इतना विशाल, विराट, विभो स्वरूप, डरावना स्वरूप, कालरूप स्वरूप देखकर तो अर्जुन बेचारा बिल्कुल भयभीत है । साधक नहीं है । उसकी तैयारी बिल्कुल नहीं कि मुझे यह सब कुछ देखना पड़ेगा लेकिन इच्छा थी । भगवान् ने उसकी इच्छा पूरी कर दी । साधना की तैयारी है । मां शेरावाली सामने आ जाए तो साधना, तैयारी है कि आप शेर को देखकर भयभीत ना हो जाओ ।
यह साधना की तैयारी अर्जुन साधक नहीं है इसलिए भगवान् का वह स्वरूप देखने के लिए तैयार नहीं है। भयभीत हो गया है लेकिन भीतर से प्रसन्न है जिनको मैंने मारना था मरे पड़े हैं । अब उन मरे हुओं को थोड़ी मारूंगा । भगवान् श्री स्पष्ट करते हैं, पार्थ ! यह जो कुछ तू देख रहा है, जो कुछ तू कह रहा है कि यह सब मरे पड़े हैं, मैं इन मरे हुओं को थोड़ी मारूंगा।
आप मुझे कह रहे हैं इनको मारो, यह तो पहले ही मरे पड़े हैं । भगवान् श्री इतना ही पूछते हैं, पार्थ ! यह तुम अपनी दृष्टि से देख रहे हो कि मेरी दृष्टि से देख रहे हो ?
याद है ना अपना विराट स्वरूप दिखाने से पहले भगवान् ने उन्हें दिव्य दृष्टि मानो अपनी दृष्टि दी । मेरी दृष्टि से देख, ज्ञान की दृष्टि से देख । संत महात्मा, गुरु यह हमें दृष्टि अक्सर देते रहते हैं लेकिन हमारी दृष्टि तो बहुत छोटी है । ज्ञान की दृष्टि बहुत बड़ी है । कल्पना करो देवी ! इस घर में मृत्यु हो गई है किसी की । रोना धोना हो रहा है । जिस घर में रोना धोना है उनकी दृष्टि इतनी ही सीमित है कि हमारे घर में एक मृत्यु हो गई है । साथ वाले घर में या एक घर छोड़कर बाजे बज रहे हैं। क्या हुआ है ? वहां पर जन्म हुआ है । कोई ज्ञान की दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति होगा तो उसे पता है कि इधर मरा है उसने उधर पुनर्जन्म ले लिया है । उसको कोई दुःख नहीं है । ना ही उसे सुख है । अरे वह मर गया था यहां जन्म ले लिया । लेकिन जिस की दृष्टि सीमित है, वह रो रहा है । दूसरे की दृष्टि इधर सीमित है तो वह बाजे बजवा रहा है । सीमित दृष्टि के खेल हैं। जहां दृष्टि दिव्य है वहां ना किसी प्रकार का सुख है, ना किसी प्रकार का दुःख है ।
भगवान् श्री यह बात उसे दिखा कर तो उसके कर्तापन का अभिमान मिटा रहे हैं । तूने देख लिया ना अपनी आंखों से । देख मैंने मार रखे हुए हैं । तूने सिर्फ मारने का अभिनय करना है ।
Stage पर खड़े होकर मारना तूने ही है । मार मैंने रखे हुए हैं लेकिन औरों को दिखाई दे कि तू मार रहा है । पार्थ मार रहा है । यह यश , यह श्रेय, यह शोभा, मैं तुम्हें दिलाना चाहता हूं, यह परमात्मा की प्रभुता है । सब कुछ करते हुए भी आप को श्रेय देता हुआ। वाह बेटा वाह तू अपने परिवार का पालन-पोषण कितनी मेहनत से कर रहा है । नहीं कहते परमात्मा कि इस सब मेहनत का बल देने वाला मैं बैठा हुआ हूं । मैंने किसी दिन इस मेहनत का बल छीन लिया तो आप बलहीन हो जाओगे, शक्तिहीन हो जाओगे, कुछ नहीं कर सकोगे । आप इस चीज़ को पहचानते नहीं हो । भगवान् श्री अर्जुन को आज यही स्पष्ट कर रहे हैं । जो कुछ करना था, जो कुछ होना था वह मैंने पहले कर रखा हुआ है । Stage पर करना तुम्हें है ।
ना कर्म में आसक्ति, ना कर्मफल में आसक्ति, ना कर्तापन का अभिमान है । इस प्रकार से कर्म साधक जनो ! कर्मयोग बन जाएगा ।
अगली बात जो है कल नहीं परसों, कल मैं यहां नहीं होऊंगा, परसों चर्चा की जाएगी। परमेश्वर के लिए कर्म क्या है ? वह कर्म भी कर्मयोग बन जाता है, परमात्मा का पूजन बन जाता है यह क्या होता है ? परसों करेंगे चर्चा आज समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । धन्यवाद ।
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