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Sharad Purnima ki bhut bhut badhai
*महर्षि वाल्मीकि जयंती एवं शरद पूर्णिमा की बधाई।*
परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
*तू राम राम बोल बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*तू राम राम बोल बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*राम राम बोल बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*राम राम बोल बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम ।*
*राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम।*
*तू राम ना बिसार बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*तू राम ना बिसार बन्दया बड़ा सुख पावैगा ।*
*कल पूर्णिमा थी महर्षि वाल्मिकी का जन्म दिवस। एक महान संत जिनका उपकार संसार कभी भूल नहीं सकेगा । जो रचनाएं इन्होंने रची है, कोई एक रामायण नहीं रची, और रामायणे में भी रची है इन्होंने। बहरहाल जिस रामायण से हम परिचित हैं, वाल्मीक रामायण, वह हमारी ही नहीं है, साधक जनों भारत की ही नहीं है, लगभग 300 रामायणे जानी जाती है, और अनेक देशों में इनका पाठ होता है ।*
*राम जैसे चरित्र का वर्णन, जिस ढंग से महर्षि वाल्मीकि ने किया है, देवियों सज्जनों बड़ा अनूठा है, बढ़ा अनुपम है, सत्य है । अपने जीवन में उतारने योग्य है । समग्र चरित्र तो प्रभु राम का जीवन में उतारना, बसाना, अति दुष्कर होगा । आंशिक ही यदि किसी एक व्यक्ति के जीवन में आ जाए, वह संसारी नहीं रह सकता । वह साधक हो जाएगा । मानो संसार में रहता हुआ भी वह अनासक्त जीवन व्यतीत करने वाला हो जाएगा । उसका जीवन शांत एवं आनंदमय जीवन हो जाएगा । उसको पता लगेगा कि आदर्श जीवन किस प्रकार से होना चाहिए । किस प्रकार से मुझे अपने आप को दिव्य प्रेम से परिपूरित करना है, और किस तरह मुझे इसे अपने दोनों हाथों से बांटना है। यही था प्रभु राम का चरित्र ।*
*जो नीचे थे, उन्हें ऊपर उठाया और जो ऊपर थे, उन्हें उछाला । ऐसे मंच पर लाकर उन्हें खड़ा कर दिया; नीच से नीच को; ऐसे मंच पर खड़ा कर दिया कि, जिस मंच पर महर्षि वशिष्ठ और प्रभु राम के अपने भाई बैठते हैं । ऐसा अनूठा प्रभु राम का चरित्र ।*
*चर्चा चल रही थी, साधक जनो कल मैं बधाई नहीं दे सका । आपको आज मांगलिक दिवस पर बहुत-बहुत बधाई देता हूं । शुभकामनाएं मंगलकामनाएं। चर्चा चल रही थी, मन को प्रबोधन की । आपसे अर्ज की गई थी मन की पांच विशेषताएं । सर्वप्रथम चंचल है अस्थिर । मन चंचल है हर वक्त अस्थिर रहता है । एक जगह से, एक विचार से, एक स्थान से, दूसरे पर jump करना इसका स्वभाव है । वहीं पांच विशेषताएं आपकी सेवा में प्रस्तुत की जा रही है।*
मन चंचल है, अस्थिर है । सब का एक जैसा ही है । जब तक किसी ने मेहनत करके साधना से इसे सिधाया नहीं है, तब तक मन इसी प्रकार से बंधन का कारण बना रहेगा । सर्वप्रथम मन चंचल है, मलिन है, इसके अंदर दुर्गुण, दोष, दुर्विचार भरे पड़े हैं । मन नाम का शरीर में कोई organ तो नहीं है ।
It is just a bundles of thoughts.
संत महात्मा कहते हैं मन नाम की कोई चीज नहीं है। जैसे लीवर है, हार्ट है,
Eyes है, Ears है, इत्यादि इत्यादि ऐसा कोई Organ body में नहीं है ।
It is just a bundles of thoughts.
इसी को मन कहा जाता है ।
अंतःकरण के जो चार भाग हैं उनमें से एक मन भी है। स्वभावतया: जैसे पानी का स्वभाव है नीचे को बहना, इसे ऊपर चढ़ाना होगा तो आपको कोई यंत्र चाहिए होगा, कोई मोटर लगानी पड़ेगी, तो पानी ऊपर चढ़ेगा। नहीं तो स्वभावतया इसका स्वभाव है नीचे जाने का, मन का भी यही स्वभाव
है । अपने दुर्गुणों के कारण,अपने विकारों के कारण, दुर्विचारों के कारण, इसका स्वभाव है नीचे की ओर ले जाना । यह नहीं चाहता कि कोई साधक बने । और हमें भी संसारी रहने में बड़ा आनंद है । दोनों की निभ रही
है । मन नहीं चाहता कि तू साधक बन ।
मन चाहता है, मन चाहता है, मन मन चाहता है कि तू संसारी ही रहे इसमें बड़ी मौज है ।
अध्यक्ष तो हम बनना चाहते हैं, लेकिन साधक नहीं । यह मन का खोटा खेल है । सचिव तो हम बनना चाहते हैं, Position तो, सत्ता तो, हम अपने हाथ में रखना चाहते हैं; हर कोई मेरा कहना माने, हर कोई मेरे अनुसार चलें, यह मन के खोटे खेल है। जो इन्हें पहचान गया, इस जन्म में बाजी मार गया । मानो अगले जन्म तक, या उससे अगले जन्म तक कुछ पा लेगा । जिसको अगर अभी यहीं बोध नहीं हुआ, उसकी तो यात्रा अभी शुरू भी नहीं हुई । उसको अभी यह सोचना चाहिए की मानव जन्म जो मुझे मिला हुआ है, मैंने इसे बर्बाद कर दिया ।
मन मलिन है, नीचे की और ले कर जाने वाला । हर एक को नीचे की ओर ले जाता है। अभी आप जी से अर्ज की, पानी को ऊपर ले जाने के लिए यंत्र चाहिए, तो मन को ऊपर, ऊर्ध मुखी करने के लिए मंत्र चाहिए । परमेश्वर कृपा वह मंत्र आपके पास है।
सदा भूखा मन, इसका स्वभाव आपकी सेवा में अर्ज किया जा रहा है । सदा भूखा; इस की भूख कभी तृप्त नहीं की जा सकती । सदा भूखा रहेगा इसे और, और, और, और, मात्र और, और ही नहीं, नया, नया, better, better चाहिए । सदा भूखा ।
मूर्ख है । संत महात्मा कहते हैं चौथा लक्षण है मन का मूर्ख है । समझता नहीं है । मूर्ख कौन-जो समझता नहीं।
पागल है अंतिम लक्षण । पागल, जानता हुआ भी की ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अभिमान अच्छे नहीं हैं, उसके बावजूद भी;
जानता हुआ कि यह काम गलत है;
उसके बावजूद भी आपसे वही काम करवाता है । यह मन की खोटी चाल, मन का पागलपन । हम सब पर साधक जनों परमेश्वर की कृपा है, गुरु महाराज की कृपा है, शास्त्र की कृपा है, कोई शक नहीं ना किसी को, है ना, परमात्मा की कृपा है, गुरु महाराज की कृपा है। अभी आपने पाठ किए, अमृतवाणी का पाठ किया, भक्ति प्रकाश का पाठ किया, मानो शास्त्र की कृपा भी है । लेकिन Big question mark ? हम वहीं के वहीं हैं। टस से मस नहीं हो रहे । हमारा अभिमान, शायद किसी का थोड़ा सा कम हुआ हो, लगता तो नहीं कम से कम मुझे, अपने जीवन से तो नहीं लगता । ईर्ष्या कम हुई हो, द्वेष कम हुआ हो, घृणा कम हुई हो, मन मनोमुखी ना रह कर तो गुरुमुखी या ईश्वर उन्मुख बना हो, मात्र दो माला राम राम की फेरने को मत सोचिएगा कि आपका मन ईश्वर के उन्मुख हो गया हुआ है । आप माला तो फेरते हो राम राम की, लेकिन हो तो इस समय New jersy में बैठे हुए, हो तो आप Meriland में बैठे हुए, Newyork में बैठे हुए, जम्मू में बैठे हुए इत्यादि इत्यादि ।
ऐसे मन को ईश्वर उन्मुख मन नहीं कहा जाता । ऐसे मन को गुरमुख नहीं कहा जाता। ऐसा व्यक्ति मनोमुख होता है। वह मन के उन्मुख है । जहां जहां उसको मन ले जाता है, वहां वहां वह जाता है । अभी तक उसके जीवन में स्थिरता नहीं आई । आज इस तीर्थ पर, कल दूसरे तीर्थ पर, परसों तीसरे तीर्थ पर । आज वेदांत पढ़ा जा रहा है, आज भक्ति का मार्ग पढ़ा जा रहा है, इत्यादि इत्यादि । मानो इस मन ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा । हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की स्थिरता इसने नहीं आने दी । स्वयं मस्त है।
एक संत महात्मा, देवियों सज्जनों विचरते रहते । जहां कहीं भी जाते खोज होती, की आस पास कोई संत महात्मा है अन्य, तो मैं उनके दर्शन करने के लिए जाऊं । आज जिस जगह थे, वहां से सूचना मिली कि यहां से कुछ किलोमीटर दूर एक संत महात्मा पिछले 50 वर्षों से रहते हैं । लेकिन बड़े कठोर; मानो संसार के काबू नहीं आते । जो संसार के काबू आ गया, देवियों और सज्जनों आप गुस्सा करो, जो मर्जी करो वह संत नहीं रह
सकेगा । मानो संसार, उस व्यक्ति का दुश्मन है, जो उसकी संताई को जो है वह कम करना चाहता है । वह जो संत को संत नहीं बनने देना चाह रहा । वह दुश्मन है। वह सही व्यक्ति नहीं है ।
50 साल से वहां रह रहा है। किसी संसारी को मिलता नहीं। जो कोई उसके पास, उसको मिलने के लिए जाता है, उसे इतनी जोर से डांटता है, कि फिर कभी उसकी हिम्मत नहीं होती उसके पास जाने की ।
लेकिन सुना है बहुत पहुंचा हुआ है, बहुत उच्च कोटि का संत महात्मा है । चेहरे से लगता है कि इसके पास कुछ है, इसके पास बहुत कुछ है, और कुछ हो ना हो इसके अंदर परमात्मा का नूर टपकता है । इसके अंदर परमात्मा का प्रेम भरा हुआ है।
जैसे जैसे बातें सुन रहा है यह संत, जिज्ञासा बढ़ती जा रही है । मैं दर्शन करने जाऊंगा। लोग रोकते हैं । मत जाना । चिमटा मारता है वह । मत जाना उसके पास । हम तुम्हें warning दे रहे हैं । रात को नींद नहीं आई साधक को। सुबह उठते ही बिना किसी से सलाह किए हुए चल पड़े हैं। ढूंढते ढूंढते एक कुटिया
आई । कुटिया बंद । संत महात्मा अंदर बैठे थे, अपनी मौज में बैठे हुए थे । बाहर, एक बड़ी सी, द्वार के बाहर, एक बड़ी सी लकड़ी पड़ी हुई है, इस वक्त जो दर्शन करने गए हैं वहीं बैठ गए । एक घंटे के बाद एक द्वार खुला । टिक टिक करी bell नहीं । यह सांसारियों के काम है संतों के नहीं है ।
विदेशियों, सुनो संत किस प्रकार के होते हैं । संतो के साथ किस प्रकार से deal किया जाता है । विदेश में जाकर सब कुछ भूल गए हो, आप घंटी बजाओ, आओ जी बैठो, ठंडा पियोगे गरम पियोगे घंटा, आधा घंटा उसका बर्बाद करो, आधा घंटा अपना बर्बाद करो, यह संसार है ।
एक घंटे के बाद संत महात्मा बाहर निकले हैं । कैसे आना हुआ ? संत ने पूछा एक संत ने दूसरे संत से पूछा कैसे आना हुआ ? दर्शन करने के लिए आया हूं महाराज ।
द्वार बंद ।
उसके बाद यह महात्मा फिर वहीं उसी बड़ी लकड़ी पर बैठ गए है ।
दो घंटे के बाद फिर द्वार खुला। भीतर आ जाइए । भोजन तैयार है, भोजन करते हैं । उस संत ने इन को अंदर बुला लिया । धूनी लगी हुई थी । उसके पास दोनों महात्मा बैठ गए हैं । भोजन भी चल रहा है, साथ ही साथ भगवद चर्चा भी चल रही है। क्रोध का निराकरण कैसे हो, अभिमान का निराकरण कैसे हो, ईर्ष्या को कैसे कुचला जाए, कैसे उसको मारा जाए। आपस में लंबी चौड़ी चर्चा, वह संत महात्मा शास्त्रों के पारंगत, 50 साल के अपने अनुभव से जटिल से जटिल समस्याएं जो आध्यात्मिक समस्याएं हैं, उन पर चर्चा की जा रही है ।
इनके मन में विचार आया, लोग ऐसे ही कहते थे । यह तो बड़ी उच्च कोटि के महात्मा हैं । संत ने कहा अब हो गया ना । अब मेहरबानी करके आप प्रस्थान कीजिएगा । आपकी कृपा से हुआ महाराज । किसने कहा, जो कुछ भी हुआ आपकी कृपा से हुआ, आपकी कृपा से होता है, तो चिमटा उठा लिया । खबरदार । परमेश्वर की कृपा हुई तो, तेरा मेरे पास आगमन हुआ । तू आया, मैंने सोचा परमेश्वर की प्रेरणा से यह व्यक्ति आया था, आया है। वरना मैं तेरे से क्यों बात करता ? क्यों अपना समय बर्बाद करता, क्या लगता है तू मेरा । यह संत बता रहे हैं । परमेश्वर की कृपा हुई, तेरा यहां आगमन हुआ, संत का मिलन हुआ, परमेश्वर की कृपा होती है, तो संत का मिलन होता है । शास्त्र पर चर्चा हुई तो मानो शास्त्र की कृपा भी हुई । कहा महाराज बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ सुना । अब इजाजत दे । चलता हूं । ऐसी कृपा बनाए रखिएगा । बांह पकड़ी,
बैठ । इधर परमेश्वर की कृपा भी है, संत की कृपा भी है, शास्त्र की कृपा भी हैं ।
साधु महात्मा-यदि तेरी अपनी कृपा तेरे ऊपर नहीं है, तो सब बेकार जाएगा । यदि तेरे मन की कृपा तेरे ऊपर नहीं है, तो सब कुछ बेकार चला जायेगा । सुना हुआ भी बेकार, पढ़ा हुआ भी बेकार, मेरा अनुभव भी बेकार, मेरा समय, सब कुछ बर्बाद ही बर्बाद । सिर्फ एक कारण से। वह कारण तेरे ऊपर तेरे मन की कृपा नहीं है । वह इसको, अपने जीवन में जो तुमने पढ़ा है, जो तुमने सुना है, जो तुमने सीखा है, वह तुझे अपने जीवन में उतारने देता है कि नहीं उतारने देता, इस पर निर्भर करता है, और इसे कहते हैं मन की कृपा ।
आपकी अपनी कृपा, क्यों कहा जा रहा है, आपकी अपनी कृपा, इसलिए आपने मन के साथ इतना तदात्म करके रखा हुआ है, की आपको लगता है मैं मन हूं । आपको यह लगता ही नहीं है कि मैं आत्मा हूं । जब आत्मा लगेगा, मैं आत्मा हूं, फिर मेरी कृपा, अपने आप की कृपा का अर्थ और हो जाएगा । इस वक्त आपकी अपनी कृपा का अर्थ है आपके मन की कृपा ।
चार कृपाओं को याद रखिएगा । तब साधक बन पाओगे, तब अध्यात्म में आगे बढ़ पाओगे, तब आप की आत्मिक उन्नति हो पाएगी । यहीं समाप्त करने की इजाजत दीजिएगा ।
धन्यवाद ।
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